Tuesday, 18 May 2010

हवा

गरमी की तपती दोपहरी, चाहे कहीं छाँह हो गहरी।

वर्षा, बिजली, पानी, ओले, कोयल मोर पपीहा बोले।

रंग-बिरंगे फूलोंवाली, चाहे सूनी सूखी डाली।

बर्फ ढँकी ऊँची चोटी हो, नदियों की लहरें छोटी हों।

यहाँ-वहाँ या जहाँ-तहाँ हो, कौन जगह है नहीं कहाँ हो?

साँस-साँस में कू रहती है, सबके लिए कष्ट सहती है।

पर उपकारी हवा सरीखी, तुझ सी तू ही, और देखी।

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